जरा छुईं सुणो…
ऐ उत्तराखंड को वाशिन्दों
मेरी धै सुनों
गढ़-कुंमु को भै- बन्दों
जरा छुईं सुणो ।। 1
कैगु डाम म डुबाय
निचोड़ी कुम्भे म बग़ाय
छपोड़ी गंगा म तैराय
त्वेतें लुटाय आपदों मा
सजाय तीते कागजों मा
गढ-कुंमु को भै- बंदों
मेरी धै सुणो
ऐ उत्तराखंड को वाशिन्दों
जरा छुईं सुणो। ।। 2 .
तीन ह्वेगे विकास-वाला
तीन-दूनी, त्यारु चौकिदारा,
निर्मुखी विकास देखी
निर्लजी चाकरी
झूठी-मुटी की चाकरी
गढ-कुंमु को भै- बंदों
मेरी धै सुणो
ऐ उत्तराखंड को वाशिन्दों
जरा छुईं सुणो।3.
भ्रष्टाचारी आग येन,
पहाड़ कु भाग ह्वेन
ठेकेदारी, लाचारी जखी,
गरीबी, बीमारी यखी
शिक्षा को व्यापार बढ़ी.
पलायन कु गाड़ बढ़ी.
बेरोजगारी बाढ़ बढ़ी.
गढ-कुंमु को भै- बंदों
मेरी धै सुणो
ऐ उत्तराखंड को वाशिन्दों
जरा छुईं सुणो।4.
पहाड़ भी प्यासु रायी
नल-जल, बरखा नहाय
भागीरथी भी भेंट चढ़ी
बिन-बिजली , बिल-बिलाय
विकास ना आस तुमारी
नि राखी विश्वास तुमारी
गढ-कुंमु को भै- बंदों
मेरी धै सुणो
ऐ उत्तराखंड को वाशिन्दों
जरा छुईं सुणो।5.
कैमा बतान्दू बिपदा येगु
कु सुन्दू खैरी हमारी
जमीगे,पहाडे जवानी
उडिगे मुखडियों कु पानी
कै बैरी नजर लागी
करी कै विश्वासघात
देख्लू क्वे पीड़ा पहाड़
कू चलालू साथ-साथ.
गढ-कुंमु को भै- बंदों
मेरी धै सुणो
ऐ उत्तराखंड को वाशिन्दों
जरा छुईं सुणो।6.
नी राली गुमनाम तू
अब नी होली वीरान तू
देबतों को अभिमान छाई
देवभूमि, तेरो मान छाई
रै-वासियों की शान तू
ह्वेगे अब जवान तू
अब ह्वेगे ज्वान तू।
गढ-कुंमु को भै- बंदों
मेरी धै सुणो
ऐ उत्तराखंड को वाशिन्दों
जरा छुईं सुणो।।7
रचयिता- दास दुष्यंत परिहार।