बीएसएनके न्यूज डेस्क / नई दिल्ली। बच्चों के खतना (सुन्नत ) की प्रथा को अवैध करार देने की मांग वाली याचिका केरल हाई कोर्ट में दायर की गई है। कानून के विशेषज्ञों की मानें तो धार्मिक परंपरा निभाने की स्वतंत्रता और जीवन का अधिकार, दोनों में इस याचिका के दायर होने से टकराव की स्थिति उपजती है। ऐसे में न्यायिक समीक्षा हो सकती है, लेकिन देश की अदालतें सबसे पहले इस पहलू पर गौर करती हैं कि संबंधित मुद्दा धर्म के अभिन्न हिस्से से छेड़छाड़ तो नहीं कर रहा।
नॉन रिलिजियस सिटिजंस (एनआरसी) ने याचिका में दावा किया है कि गैर-चिकित्सकीय सुन्नत एक क्रूर और अवैज्ञानिक प्रथा है। इस पर रोक लगाई जाए, क्योंकि यह मानवाधिकारों और नागरिकों को मिले जीवन जीने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। याचिका में अनुच्छेद 21 (जीवन के मौलिक अधिकार) के उल्लंघन का हवाला देने के मसले पर सुप्रीम कोर्ट के वकील ज्ञानंत सिंह ने कहा कि अनुच्छेद-25 के तहत धार्मिंक परंपरा निभाने की स्वतंत्रता भी देश के हरेक नागरिक को है, धर्म विशेष में सुन्नत एक धार्मिक परंपरा है। याचिका में उठाया गया मुद्दा दोनों मौलिक अधिकारों के बीच टकराव की स्थिति दर्शाता है। ऐसे में हाई कोर्ट इस याचिका पर विचार कर सकता है।
आखिर कैसे हाई कोर्ट इस पर गौर करेगी
उन्होंने कहा कि पहले भी सबरीमला, शनि शिंगणापुर और तीन तलाक वाले मुद्दे भी ऐसी स्थितियों के चलते सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे थे। हरियाणा में दो बच्चों की पाबंदी से संबंधित एक मुद्दे में जब एक पक्ष की तरफ से कहा गया कि धर्म में तीन शादियों की मंजूरी होने के बावजूद दो बच्चों की पाबंदी मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। इस मसले पर अदालत ने पाबंदी को सही माना था,क्योंकि यह संबंधित धर्म का आतंरिक हिस्सा नहीं है। अधिवक्ता सिंह ने आगे कहा ऐसे में हाई कोर्ट इस आधार पर भी गौर करेगी।
अधिवक्ता ज्ञानंत सिंह ने कहा कि अब सवाल आता है कि याचिका दाखिल करने वाले का लोकस (किस तरह से प्रभावित) क्या है। भले ही यह जनहित याचिका होगी, तब भी अदालतों द्वारा इस स्थिति पर जरूर गौर किया जाता है। वैसे भी यह मामला सीधे तौर पर एक धर्म से जुड़ा है, दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट के वकील अनुपम मिश्रा ने कहा कि अनुच्छेद-21 और 25 के बीच टकराव की स्थिति के मद्देनजर हाई कोर्ट न्यायिक समीक्षा कर सकता है, लेकिन यह न्यायाधीशों के विवेक पर निर्भर करता है, क्योंकि कोई भी रुख अपनाने से पहले वह यह जरूर देखेंगे कि आखिर यह संबंधित धर्म का आंतरिक हिस्सा है या नहीं।
अधिवक्ता मिश्रा ने कहा कि याचिका में मानवाधिकारों का हवाला दिया गया है, जो एक अलग आधार है। यह विषयात्मक है और उच्च न्यायपालिका इस दिशा में भी रुख अख्तियार कर सकती है। जहां तक लोकस का सवाल है, व्यापक जनहित के मुद्दे पर अदालतें आमतौर पर इस ओर गौर नहीं करती।
यह याचिका नॉन रिलिजियस नामक एक संगठन की ओर से दायर की गई है। इसमें लड़कों के खतना प्रथा पर रोक लगाने के लिए कानून बनाने पर विचार करने के लिए केंद्र सरकार को निर्देश देने का भी अनुरोध किया गया है। इसमें आरोप लगाया है कि खतना की प्रथा बच्चों के मानवाधिकारों का उल्लंघन है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि खतने से आघात सहित कई स्वास्थ्य समस्याएं होने का खतरा होता है, साथ ही अन्य जोखिम भी होते हैं।
गौरतलब है कि याचिका में कहा गया है कि बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र संधि, 1989 और संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा अपनाया गया नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय अनुबंध, जिसका भारत एक सदस्य और हस्ताक्षरकर्ता है, इसके प्रावधानों के आधार पर इस बात पर जोर देता है कि सभी बच्चों को एक प्यार भरे वातावरण, किसी भी प्रकार के नुकसान, हमलों, दुर्व्यवहार और भेदभाव से मुक्त सुरक्षित स्थान पर रहने का अधिकार है।
प्रथा का अभ्यास क्रूर, अमानवीय और बर्बर है
याचिका में कहा गया है कि बच्चों पर खतना की प्रथा एक मजबूरी है, न कि उनकी पसंद है। उन्हें केवल उनके माता-पिता द्वारा लिए गए एकतरफा निर्णय के कारण पालन करने के लिए मजबूर किया जाता है, जिसमें बच्चे के पास कोई विकल्प नहीं होते हैं। याचिका में कहा गया है कि यह अंतरराष्ट्रीय संधियों के प्रावधानों का स्पष्ट उल्लंघन है।
आरोप लगाया गया है कि खतना की प्रथा के कारण शिशुओं की मौत की कई घटनाएं हुई हैं। इस प्रथा का अभ्यास क्रूर, अमानवीय और बर्बर है और यह भारत के संविधान के अनुच्छे 21 के तहत बच्चों के मूल्यवान मौलिक अधिकार, जीवन के अधिकार उल्लंघन करता है।