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जानिए क्या है उत्तराखण्ड के लोकपर्व फूलदेई की कहानी 

स्थानीय संपादक / नारायणबगड़ चमोली। चैत्र मास की संक्रांति के दिन गांव गांव में बच्चों और परिजनों ने फूल सक्रांति का त्यौहार बड़े ही धूम-धाम और हर्षोल्लास से मनाया,लेकिन पहले जैसी रौनक अब उत्तराख़ड के पारंपरिक तीज त्यौहारों में नहीं रही। हालांकि इस दौरान बच्चों में खासा उत्साह देखने को मिला।

इससे कहीं न कहीं ऐसा लगता है कि हम अपने समृद्ध पारंपरिक तीज त्यौहारों को भूलते तो नहीं जा रहे हैं भले ही आज सोशल मीडिया है जो गाहे-बगाहे हमारी परंपराओं को याद करा देते हैं,वरना हमारी बहुत सारी समृद्धि भरे पारंपरिक कीमती चीजें हम दिनों-दिन भूलते जा रहे हैं जो हमें प्रकृति और मानवीयता के करीब लाते हैं। उत्तराखंड में ऐसा ही समृद्ध एक पर्व है फूल संक्रांति जो आज चारों तरफ हर्षोल्लास से मनाया गया।

जानिए क्या है उत्तराखण्ड के लोकपर्व फूलदेई की कहानी 

आइए आज हम बात करेंगे उत्तराखंड के दोनों मंडलों कुमाऊं और गढ़वाल में मनाए जाने वाले कुछ लोक पर्वों में से एक विशेष पर्व के बारे में जो पौराणिक काल से देवी देवताओं,प्रकृति,ऋतुराज बसंत और हिंदू नव वर्ष के आगमन के लिए समर्पित है,वह है बसंत बहार, हरियाली,हर्षोल्लास और खुशहाली का पर्व फूल सक्रांति,जिसे कुमाऊं में फूलदेई और गढ़वाल में फूल सक्रांति के नाम से जाना जाता है। यह चैत्र मास की संक्रांति के दिन मनाया जाता है और यहां से बैशाखी के पावन पर्व के स्नान तक बासंती त्यौहारों का सिलसिला जारी रहता है।

पहाड़ों में ऋतुराज बसंत के आगमन के दौरान प्रकृति में नाना प्रकार के फूलों,हरियाली और बसंत के बहार से सारी धरती दुल्हन के समान सजी हुई दिखाई देती है। इसमें “पिऊली” के फूल का विशेष महत्व है,”पिऊली”के बारे में हम आपको आगे बताएंगे।।अब बात करते हैं आज के विशेष लोकपर्व फूलदेई के बारे में तो आज सुबह से ही हर गांवों में बच्चों ने घर-घर जाकर लोगों की देहरियों पर प्रचलित गीतों को गाते हुए ” विभिन्न प्रकार के इकट्ठा किए हुए फूल-पत्तियों को डालकर लोगों को शुभकामनाएं दी जिसमें “पिऊंली”के फूलों को भी सामिल किया गया होता है,और हर घर से बच्चों को गुड़,मिठाई,पैसे,चावल और आशीर्वाद दिया गया। बच्चों की खुशियों का इस दिन कोई ठिकाना नहीं रहता है।यह पर्व बीस दिनों तक विभिन्न रूपों में चलते रहने वाला बसंत ऋतु का पर्व है।

इस दरमियान बच्चे बड़े-बुजुर्गो के सहयोग से घर व जंगल में तमाम देवी-देवताओं,जंगली जानवरों और प्रकृति को मनाने,पूजने के साथ साथ जंगल में अपने मवेशियों को किसी बाघ,भालू और जहरीले चारा-पत्तियों से सुरक्षा की मनोकामनाएं करते हैं। इन बीस दिनों के त्यौहारों में बच्चे जंगल में जाकर बाघ भी बनते हैं और दूसरे बच्चों के मनाने पर बाघ बने हुए बच्चे उनके मवेशियों की सुरक्षा की हामी भी भरते हैं।

वैसे तो उत्तराखंड में बहुत सारे तीज-त्यौहार मनाए जाते हैं ऐसा ही एक प्रसिद्ध त्योहार है जो चैत्र माह में मनाया जाता है गढ़वाल में फूल सक्रांति और कुमाऊं में फूल देई के नाम से जाना जाता है। बच्चे जंगल और खेत खलिहानों से पिऊंली,बुरांश सहित नाना प्रकार के फूल चुन-चुन करके लाते हैं और और फूलों को अगले दिन पूजने को रखते हैं।सर्दियों की विदाई और गर्मी व हिंदू नववर्ष के आगमन का प्रकृति में खिले नए फूल संदेश देते है।

यह लोकपर्व उत्तराखंड के हर गांव में मनाया जाता है जब ऊंची पहाड़ियों की बर्फ पिघल जाती है  सर्दी धीरे-धीरे विदा हो रही होती है तो बसन्त ऋतु के आगमन पर पहाड़ों में खूबसूरत हरियाली के बीच पिऊंली,बुरांश,सिलपौडी,मेहल,ब्राह्मी,सरसों,आड़ू,खुबानी,पय्यां आदि विभिन्न प्रजातियों के रंग-बिरंगे फूलों की चादर से पट जाते हैं। आज के दिन बच्चों ने सुबह सुबह उठकर के घर व जंगली फूलों को इकट्ठा कर रिंगाल की टोकरियों में रखकर हर घर में डाला जहां से उन्हें चावल, पैसे, मिठाई, गुड़ आदि परिवार जनों द्वारा दिया गया।

इस त्यौहार के बारे में प्रसिद्ध है कि यह सतयुग से शुरू हुआ था एक कथा के अनुसार शिव कविलास अर्थात कैलाश पर्वत में सबसे पहले यह उत्सव मनाया गया था। पुराणों में वर्णित है कि जब शिव जी कैलाश में अपनी तपस्या में लीन थे और ऋतु परिवर्तन के कई वर्ष बीत गए और संसार बेमौसमी हो गया तो जब कविलास में पिऊंली खिली तो मां पार्वती ने एक युक्ति निकाली नंदी और शिवगणों से उन्होंने कहा कि वे देव-वाटिका में जाकर रंग बिरंगे फूलों को इकट्ठा करके लाओ। तब शिव जी को गुस्सा न आ जाए मां पार्वती ने नंदी और शिवगणों को पीतांबर वस्त्र पहनाकर बालरूप में बनाकर शिवजी के सामने फूलों की वर्षा करने को कहा।

फूलों की खुशबू से संपूर्ण कैलाश महक उठा। इससे शिवजी की तंद्रा टूटी तो सभी ने एक स्वर में महादेव की प्रार्थना की और उन्हें तपस्या में बाधा डालने की क्षमा मांगी “फूलदेई क्षमा देई,भर भंकार तेरे द्वार आए महाराज”। तंद्रा भंग होने पर गुस्से से तमतमाए शिवजी ने अपने सामने सभी अबोध बच्चों को देखा तो उनका गुस्सा शांत हुआ तब वह भी इस त्यौहार में बच्चों के साथ सामिल हो गये। माना जाता है कि तब से यह त्यौहार संसार में मनाया जाने लगा।

अब हम आपको “पिऊंली”के बारे में बताते हैं,एक कथा प्रचलित है कि एक वन कन्या थी जिसका नाम “पिऊंली”था वह जंगल में रहती थी। जंगल के पेड़-पौधे उसके दोस्त थे। पिऊंली के कारण ही जंगल और पहाड़ों में हरियाली व खुशहाली थी। एक दिन दूर देश से एक राजकुमार जंगल में आया और पिऊंली को राजकुमार से प्रेम हो गया।राजकुमार के कहने पर पिऊंली ने उससे शादी कर ली और वह जंगल छोड़कर दूर राजमहल में रहने लगी।पिऊंली के जंगल से जाते ही पेड़-पौधे और जंगल पहाड़ मुर्झाने लगे वो सूखने लगे। पहाड़ बर्बाद हो गए।

उधर “पिऊंली” भी राजमहल में उदास रहने लगी और वह धीरे-धीरे बीमार हो गई। उसने राजकुमार को बहुत बार जंगल में चलने की प्रार्थना की लेकिन राजकुमार नहीं माना। धीरे-धीरे पिऊंली ने उदासी और बीमारी के कारण दम तोड दिया।तब पिऊंली की अंतिम इच्छा पर राजकुमार ने पिऊंली को जंगल और पहाड़ में लाकर दफना दिया।

तब महीनों बीत जाने के बाद जहां पर पिऊंली को दफनाई गई थी उस जगह पर एक पीला फूल उग आया जिसे”पिऊंली”के नाम से जाना गया। बस क्या था पिऊंली के फूल के खिलते ही सूखे हुए पेड़ों पर नयीं कोंपलें आने लगे,जंगल और पहाड़ फिर से हरे भरे होकर लहलहाने लगे,हर जगह हरियाली छाने लगी।इस कथा के अनुसार तबसे यह फूल सक्रांति का पर्व मनाया जाने लगा।पिऊंली पर उत्तराखंड के लोकगीतों में बहुत सारे गीत गायकों ने गाये हैं।

लेखक – सुरेन्द्र धनेत्रा