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रितेश शाह की कमजोर पटकथा में उलझे पंकज त्रिपाठी, अनिरुद्ध रॉय चौधरी की एक और औसत फिल्म

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बीएसएनके न्यूज डेस्क/ मनोरंजन :- दिसंबर महीने के अभी आठ दिन ही हुए हैं और सिनेमाघरों से लेकर ओटीटी तक इतनी अलग अलग तरह की फिल्में सामने आ गई हैं, जिन्हें देखकर इस बात का तो संतोष होता है कि सब एक जैसी ही फिल्में नहीं बनाते रहे हैं। ‘एनिमल’ को लेकर इतना टॉक्सिक टॉक्सिक हुआ कि ‘केजीफ’ वाले यश की अगली फिल्म का नाम ही ‘टॉक्सिक’ रख दिया गया है। मनोज बाजपेयी की फिल्म ‘जोरम’ के बारे में आप पढ़ ही चुके हैं। ‘द आर्चीज’ के जरिये युवा सितारों की एक नई खेप भी मैदान में उतर चुकी है और पंकज त्रिपाठी भी अपनी चिर परिचित अदाओं के साथ मैदान में डटे हुए हैं। इस साल उनकी दो फिल्मों ‘ओएमजी 2’ और ‘फुकरे 3’ सिनेमाघरों तक पहुंची। सराही भी गईं और पैसे भी दोनों ने खूब कमाए। दोनों फिल्मों का मजबूत आधार पंकज त्रिपाठी रहे। ‘पिंक’ और ‘लॉस्ट’ बना चुके निर्देशक अनिरुद्ध रॉय चौधरी की नई फिल्म ‘कड़क सिंह’ का आधार भी पंकज ही हैं, और यहां मामला उतना ठोस नहीं है जितना इस साल की उनकी बाकी दोनों फिल्मों का रहा है।

कड़क नहीं रही कड़क सिंह की कहानी
पंकज त्रिपाठी की फिल्म ‘कड़क सिंह’ नाम से एक सख्तमिजाज इंसान की कहानी प्रतीत होती है। फिल्म का ट्रेलर संकेत दे चुका है कि ये एक सस्पेंस थ्रिलर है। और, फिल्म है आर्थिक अपराध की एक ऐसी मनोहर कहानी जिसमें इसके पटकथा लेखक रितेश शाह ने एक्शन, इमोशन, ड्रामा सब घोलने की कोशिश की है। आर्थिक अपराध शाखा में काम करने वाला अफसर एक अस्पताल में है। याददाश्त उसकी जा चुकी है। उसे बस कुछ याद है तो उस नर्स का नाम जिसे वह सिस्टर नहीं मिस कन्नन कहकर बुलाता है। हालात सुधरती है तो डॉक्टर उससे मिलने आने वालों को लंबा लंबा वक्त उसके साथ गुजारने की अनुमति देते हैं। उसकी याददाश्त लौटाने को उसे तीन कहानियां सुनाई जाती हैं। पहली कहानी एक युवती सुनाती है जो खुद को बेटी बताती है। दूसरी कहानी एक कामुक स्त्री सुनाती है जो उसे अपनी करीबी दोस्ती के किस्से सुनाती है। और, तीसरी कहानी वह शख्स सुनाता है जो खुद को कड़क सिंह का बॉस बताता है। कड़क सिंह तीनों कहानियां सुनता है और इन तीनों कहानियों की विवेचना (इन्वेस्टिगेशन) करके अपनी एक चौथी कहानी बनाता है।

दिखा नहीं पंकज के अभिनय का प्रताप
फिल्म ‘कड़क सिंह’ को लोग चूंकि पंकज त्रिपाठी के नाम पर ही देख रहे हैं सो फिल्म के अच्छी होने, खराब होने या बेस्ट होने का सारा दारोमदार उनके ही किरदार और उनके अभिनय पर है। फिल्म के प्रचार के लिए हफ्तों पहले से तय इंटरव्यू जब एक एक कर कैंसिल होने शुरू हुए तो जैसे ही पंकज त्रिपाठी का गला ठीक न होने का बहाना बीते कुछ दिनों से सामने आना शुरू हुआ, तभी आभास हो गया था कि पंकज को फिल्म का नतीजा पता चलने लगा है। उनके धुर प्रशंसकों को भी फिल्म पसंद नहीं आ रही। वजह? वजह है स्टार स्क्रिप्टराइटर रितेश शाह की लिखी फिल्म की पटकथा। ये फिल्म फैमिली ड्रामा की तरह शुरू होती है। बीच में इसमें थोड़ा ‘सिर्फ वयस्कों के लिए’ जैसा तड़का लगाने की कोशिश होती है। फिर सस्पेंस के घोल में एक ऐसी फिल्म का कॉकटेल परोसने की कोशिश होती है जिसका क्लाइमेक्स दर्शक केबिन में कड़क सिंह के बॉस के पहली बार आते ही भांप लेते हैं। और, पंकज त्रिपाठी इतना आरामतलबी से ये फिल्म करते दिखते हैं कि लगता ही नहीं वह कोई फिल्म कर भी रहे हैं। उनके कंफर्ट जोन से बाहर आने की रत्ती भर कोशिश न करने से मामला जम नहीं पाया है।

अनिरुद्ध का खोया खोया निर्देशन
एक कमजोर पटकथा पर अनिरुद्ध रॉय चौधरी ने एक कमजोर फिल्म बनाई है। पंकज त्रिपाठी को उन्होंने कसकर रखा नहीं है। और, पंकज ऐसे अभिनेता हैं जिन्हें जब तक कसकर घिसा न जाए वह चमकने को तैयार नहीं होते हैं। तो जैसी घिसाई इस फिल्म की है, वैसा ही अभिनय पंकज ने कर दिया है। ग्लैमर जगत से जुड़े दिग्गजों के साथ देश विदेश में विशाल आयोजन करने में महारत रखने वाली कंपनी विजक्राफ्ट का फिल्म निर्माण का ये प्रयोग इसलिए भी सफल होता नहीं दिखता क्योंकि इस फिल्म का भूगोल इतना सीमित है कि न कलाकार कुछ खास कर पाने की स्थिति में हैं और न ही इसकी पटकथा। अनिरुद्ध ने समय में आगे पीछे डोलती इस फिल्म के बाकी कलाकारों से भी कोई बड़ा कमाल नहीं कराया है। बांग्लादेश की अभिनेत्री जया अहसान ने भी पंकज त्रिपाठी के साथ एक बेडरूम सीन देने के अलावा और कहीं कुछ खास चौंकाने वाला काम किया नहीं है। संजना सांघी कोशिशें लगातार कर रही हैं खुद को बतौर अभिनेत्री स्थापित करने की, लेकिन फिल्मों का चयन करने की स्थिति अभी उनकी बनी नहीं है।

हफ्ते की सबसे कमजोर फिल्म
फिल्म ‘कड़क सिंह’ के बाकी कलाकार भी बस अपना अपना फर्ज निभाते दिखते हैं। फिल्म का नाम स्थापित करने के लिए जिस बेटे की बेल्ट से पिटाई होती है, उसके किरदार में वरुण बुद्धदेव का अभिनय असरदार नहीं है। जिसे कड़क सिंह के बच्चे ‘असली बेटा’ कहकर बुलाते हं, उस किरदार में परेश पाहूजा के पास कुछ खास करने को नहीं है। त्यागी के किरदार में दिलीप शंकर के पास करने को बहुत कुछ था, लेकिन फिल्म का क्लाइमेक्स ऐसा लिखा गया है कि वह किसी नाटक का उपसंहार ज्यादा दिखता है। अविक मुखोपाध्याय की सिनेमैटोग्राफी सामान्य है, अर्घ्यकमल मित्रा का संपादन कमजोर है और शांतनु मोइत्रा के पास भी संगीत के नाम पर कुछ नया रच पाने का ज्यादा मौका रहा नहीं। मनोरंजन सामग्री के नाम पर इस हफ्ते सिनेमाघरों से लेकर ओटीटी तक जो कुछ भी दर्शकों के सामने है, उसमें ‘कड़क सिंह’ सबसे कमजोर फिल्म है।